हिन्दी फिल्म संगीत जगत में रफ़ी साहब का नाम बहुत अदब से लिया जाता है. सही मायने में रफ़ी साहब एक सम्पूर्ण गायक थे. गायन की हर शैली में उन्हें महारत हासिल थी. अपने असीमित रेंज के कारण वे अपने हर समकालीन संगीतकार और कलाकारों की पहली पसंद हुआ करते थे.
रफ़ी साहब का जन्म 24 दिसंबर 1924 को स्यालकोट में हुआ. आरम्भ से ही उन्हें गाने का शौक था लेकिन घरवाले उनके इस शौक से नाखुश रहते थे लिहाजा अपने इस शौक के कारण उन्हें हमेशा डांट सुननी पड़ती थी. रफ़ी साहब की इस ख्वाहिश को परवान चढ़ाया उनके बड़े भाई ने जो उनकी प्रतिभा से काफी प्रभावित थे. उनकी ही बदौलत रफ़ी साहब को उस्ताद बरकत अली खान से तालीम लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. पूरी तालीम हासिल करने के बाद उनहोंने दिल्ली और लाहौर रेडियो स्टेशन में गाना शुरू कर दिया. फिर वहाँ से मुम्बई आ गए. मुम्बई में उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा. लंबे संघर्ष के बाद भी जब बात नहीं बनी तो उऩ्होंने घर वापसी का निर्णय ले लिया. लखनऊ में उनकी मुलाक़ात संगीतकार नौशाद साहब के वालिद से हुई और इस मुलाक़ात ने रफ़ी साहब की जिंदगी बदल कर रख दी. रफ़ी साहब की आवाज सुनने के बाद नौशाद के वालिद ने उन्हें मुम्बई जा कर नौशाद से मिलने का मशवरा दिया. रफ़ी साहब मुम्बई आकर नौशाद से मिले. वालिद के सिफारिशी खत का दबाव था इसलिए नौशाद ने रफ़ी को फिल्म “पहले आप ” में कोरस की चार लाइनें गाने का मौका दे दिया. इस गाने के बदले रफ़ी को सिर्फ पचास रूपये मिले और इस तरह उनकी शुरुआत हो गयी.
रफ़ी साहब को फिल्मों में पहला सही मौक़ा दिया संगीतकार श्याम सुन्दर ने जिनकी पंजाबी फिल्म “गुलबलोच ” के लिए रफ़ी साहब ने पहला गाना रिकॉर्ड किया. ये गाना काफी हिट हुआ और हिंदी फिल्मों के दरवाजे रफ़ी साहब के लिए खुल गए. 1947 में आई “जुगनू ” का गाना “यहाँ बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है ?” ने उन्हें स्टार बना दिया. रफ़ी साहब ने हालांकि अपने समय के सभी श्रेष्ठ संगीतकारों के साथ काम किया लेकिन उनकी नैसर्गिक प्रतिभा का सही इस्तेमाल किया नौशाद ने. फिल्म “बैजू बावरा ” में रफ़ी साहब द्वारा गाया गया “ओ दुनिया के रखवाले ” उनकी जिंदगी का सर्वश्रेष्ठ गाना है. राग दरबारी में कम्पोज किया गया ये गाना रफ़ी साहब के शास्त्रीय तालीम की ऊंचाईयों को पेश करता है. नौशाद के अलावा रोशन ,एस. डी. बारमैन. शंकर-जयकिशन ,ओ पी नैय्यर और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने रफ़ी साहब की बहुआयामी प्रतिभा का बेहतरीन इस्तेमाल किया.
रफ़ी साहब की खासियत ये थी की उनकी आवाज हर शैली के अभिनेताओं को शूट कर जाती थी. दिलीप साहब के लिए अगर “टूटे हुए ख़्वाबों ने “,और ” कोई सागर दिल को बहलाता नहीं ” जैसे गाने गा सकते थे तो शम्मी कपूर के लिए “चाहे मुझे कोई जंगली कहे” जैसे गाने भी उतनी ही कुशलता से गा सकते थे. दिलीप कुमार के लिए उनकी आवाज का सबसे ज्यादा इस्तेमाल हुआ लेकिन कई बार ऐसे मौके भी आये जब दूसरे नायकों के लिए रफ़ी के अलावा और कोई विकल्प था ही नहीं. मसलन देव आनंद को “गाईड” में और राजकपूर को “बरसात” में रफ़ी की आवाज का इस्तेमाल ना चाहते हुए भी करना पड़ा. यहां तक कि फिल्मों में अपने गाने खुद गाने वाले किशोर कुमार को फिल्म “रागिनी ” और “शरारत ” के लिए रफ़ी साहब की आवाज उधार लेनी पड़ी. अपने चालीस सालों के गायन करियर में रफ़ी साहब ने 26 हजार से ज्यादा गाने गाये जिनमें से अधिकाँश अभी भी संगीत प्रेमियों की जुबान पर मौजूद हैं.
31 जुलाई 1980 को रफ़ी साहब अपने ही गाये गीत “जिंदगी के मेले दुनिया में कम ना होंगे,अफ़सोस हम ना होंगे ” को चरितार्थ करते हुए इस दुनिया को अलविदा कह गए. उनकी मौत के दो दशक बाद भी फिल्म संगीत जगत को उनकी कमी खल रही है और शायद ही कभी कोई उनकी जगह ले सके !